आज मुझे ताप है, अभी-अभी क्या भूलूं क्या याद करूं पूरी पढ ली गई- 10 जनवरी 2009 को रात्रि के दस बज रहे है, इसके साथ ही कविवर बच्चन की आत्मकथा के चारों खंड मैने पढ़ लिये है । ताप शायद मुझे इसलिये भी है कि मेरे दस वर्षीय पुत्र अमृत को ताप है और मेरा ताप इस बात का भी द्योतक हो सकता है कि डॉक्टर बच्चन के प्रथम खंड कॊ ही पहले क्यों ना पढा । मधुशाला के रचना काल, श्यामा जी की कवि के प्रति उदार छवि कवि का उनके लिये अपार अटूट प्रेम साथ ही अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं का दस्तावेज यह खंड मैने दो बार शुरु करके बीच में ही छोड रखा था। मुख्य रूप से श्यामा जी के प्रति मन मे अपार श्रद्धा उमडती है वे न चाहती थीं कि किसी भी प्रकार का वज्रपात चाहे वह उनकी मरणासन्न अवस्था से ही क्यों न संबधित हो बच्चन जी को विचलित न कर दे, उन्हे अपने ध्येय से न डिगा दे, शायद आपरेशन से पहले कि उनकी वह अंतिम मुस्कान कवि को आधार देना चाहती थी जिसके चलते वह कविता लिखना ना छोडें। जॊ कुछ घटित होता है उसे ऎसे ही घटित होना होता है बहुत ही मामूली सा फेरबदल इसमें हो सकता है ।
कल 11 जनवरी को स्वर्गीय आलोक दा का जन्मदिन है, कल 9 जनवरी को उनका नाम सिर्फ़ डॉक्टर हर गोबिंद खोराना के साथ जोडने में एक त्रुटि रह गई, वास्तव में डॉक्टर बच्चन का भी प्रथम परिचय मुझे आलोक दा ने ही दिया था, मन्ना डे के स्वर में मधुशाला का कैसेट तो मैने बहुत बाद को खरीदा पाकेट बुक साइज़ में मधुशाला से मेरा परिचय दिल्ली आने के कुछ ही महीनों में हो गया था। मुझे ऎसा याद पडता है कि आलोक दा मधुशाला अक्सर ही गुनगुनाते हुये पढते थे शायद कुछ एक छंद उन्हे जबानी याद थे, यह हो सकता है कि शायद इसके पहले उनका परिचय पाठ्यक्रम में पथ की पहचान अथवा धर्मयुग के किसी संस्करण में अवश्य हो चुका था। शायद उससे भी पहले पारिवारिक स्तर पर हुआ हो तो ठीक ठीक याद नही, सात हिन्दुस्तानी के बारे में सुन रखा था शायद इसी संदर्भ में कभी कुछ चर्चा हुई हो तो कह नही सकता ।
जिस परिचय की मै यहां चर्चा कर रहा हूं उसका अर्थ मात्र यह जानकारी रखना नही कि अमुक कवि हुये है बल्कि उनके प्रति एक प्रकार की आस्था एक प्रकार से आकर्षित होने का भाव जागने से संबधित है। यहां यह बताना भी उचित रहेगा कि मै यह भी जानता था कि आनंद के बाबू मोशाय उनके ही पुत्र थे, अगर मेरा अमिताभ के प्रति आकर्षित होने के कारण में कवि का योगदान रहा हो तो इसका ठीक ठीक या सही उत्तर मेरे पास नही है। फिर भी इसमें संदेह नही कि बाद में पिता पुत्र दोनो में ही मेरी रुचि अभिरुचि में क्रमशः विकास होता रहा। बहरहाल आलोक दा को मन्ना डे व मधुशाला दोनो प्रिय थे, जब हमारे यहां टेप रिकार्डर उपलब्ध हुआ तब मैने जिन कैसेटस को खरीदा था उनमें से एक मन्ना डे की मधुशाला का भी था । विशेष रूप से मैने आलोक दा को प्रसन्न करने के लिये ही यह खरीदा था। यह तो मुझे बाद को पता चला कि परिवार में सभी को मधुशाला प्रिय थी।
पोर्ट ब्लेयर में सन 1973 में शायद संत तुलसीदास की 300वीं जयंती थी ठीक याद नही, मैने अपनी 14 वर्ष की अल्पावस्था में पहली कविता लिखी थी जिसका शीर्षक तुलसी महिमा था, कविता तो मुझे अब याद नही है अब उसका अंत ही याद है – सोरों का था संत महान । यही एकमात्र कविता मेरी प्रकाशित भी हुई, जिसके लिये मुझे दिल्ली पहुंचने पर हिंदी अध्यापक श्री केशव देव पांडे ने कक्षा में खडा करके पूछा था – कविता भी लिखते हो अनायास ही मेरे मुंह से नही सर निकल गया था, उन्होने ही बताया कि हिंदी पत्रिका में मेरी कविता छपी है, इस बात का मुझे पता नही था अपने प्रति सभी सहपाठियों की आंखे घूमते देख मन को बहुत अच्छा लगा था । बाद में जब मेरे हिंदी में 150 में से मात्र 102, अर्थात 68 प्रतिशत पांडे जी को मुझसे अधिक अफ़सोस हुआ, उन्होने कह था कि मैने उनके सारे किये कराये पर पानी फेर दिया था, वे जानबूझकर मुझे हिंदी में कम अंक देते थे कि कहीं मै सिर पर ना चढ जाऊ, उन्हे मुझसे 75 प्रतिशत से अधिक की उम्मीद थी, उन्हे इस बात का क्या इल्म रहा होगा कि इम्तहानॊं के एक माह पूर्व मैने हिंदी ही नही अंग्रेजी का भी मुंह तक नही देखा था, अधिक समय गणित या बाकी समय फिसिक्स- कैमिस्ट्री के अतिरिक्त मैने कुछ भी नही पढा, उन्हे मुझसे अधिक की अपेक्षा थी इस बात की आज तक खुशी होती है ।
बात कहां से चली और कहां पहुंच गई, डॉक्टर बच्चन भी तुलसीदास के अनन्य प्रशंसक थे अपनी आत्मकथा में अखंड रामायण पाठ के बारे में तथा उससे भी अधिक अनेकानेक स्थानों पर उनसे ली गई पंक्तियां इस बात को पुख्ता बनाती हैं। संयोगवश यहां यह बता देना चाहता हूं कि हमारी मां प्रतिदिन रामचरित मानस का पाठ किये बिना अन्न ग्रहण नही करती थीं। अब याद नही किस वर्ष की बात है एक दिन अपने किसी जन्मदिन पर मैं अकेला ही अखंड रामायण (रामचरित मानस) के पाठ में जुट गया था घर के लोगों को बाद में पता चला जब मैं एक घंटे से अधिक पाठ कर चुका था। मां को पता चला तो शायद मन में उन्हे बहुत प्रसन्नता हुईं होगी । कोई अवसर अपने किसी अन्य कार्य से उन्हे प्रसन्न करने के मुझे कम ही मिलें । सुविधायें जुटाई गईं परिवार के सभी सदस्यों ने भी यथायोग्य सहयोग दिया, अखंड रामायण में रात के पहर का पाठ सर्वाधिक कष्टप्रद होता है, उसके लिये कुछ भाइयों ने आपस में तय कर ऎसा प्रबंध कर लिया था कि रात के पाठ की जिम्मेदारी किसकी होगी । यह मेरा सबसे अद्भुत जन्म दिन था जो मुझे आज भी याद है ।
अमृत की तबीयत कुछ ज्यादा खराब प्रतीत हो रही है उसे देखने के लिये मै यहां एक छोटा सा ब्रेक लेना उचित समझता हूं , सिद्धिविनायक का स्त्रोत उसको पढ़ कर सुना दिया है, प्रणम्य शिरसा देवं तथा कुछ अन्य स्त्रोत मै प्रति रात्रि अमृत को सोते समय इस आशय से सुनाता हूं कि भयावह स्वपनादि उसको नींद में परेशान न करें, कभी अपने लिये हनुमान चालीसा का पाठ किया करता था। यहां बम्बई में सिद्धिविनायक की महिमा अपरम्पार है अमृत के जन्म से पूर्व उनकी शरण में प्रत्येक मंगलवार को मै जाता ही था तथा उसका विशेष लाभ भी हुआ, विशेष सहायक तथा शीघ्र ही प्रसन्न होने वाले गणेश जी की कृपा अमृत पर सदा ही बनी रहे मेरी उनसे यही प्रार्थना है एक यही कामना है ।
आज की वार्ता समाप्त करने से पहले अगर मै भाईसाहब (अमिताभ बच्चन) के प्रति अपना विशेष आभार प्रकट नही करता हूं तो वह धृष्टता होगी – आज संक्षेप में ही सही उनके शब्दों ने मेरा दिल जीत लिया है, मेरे आज सुबह के लेख पर जो प्रतिक्रिया उन्होने व्यक्त की है मै उसका अधिकारी तो नही पर आभारी अवश्य हूं ।
Thank you, very touching and emotional .. ADHBHUT !!
यह मेरे लिये अत्यंत ही सौभाग्य की बात है, अभी कुछ दिन पहले ही उनके ब्लाग पर कुछ पढ कर मन को ऎसा लगा था कि जैसे मै कसूरवार हूं । कल हैमलॆट का जिक्र कर और आज डाक्टर बच्चन पर लिखी एक पुरानी कविता, जो 23 दिसंबर को लिखी थी, उनकी प्रतिक्रिया से मन गदगद हो गया है, उन्होने अवश्य ही मुझे अपना अनुज स्वीकार कर लिया है ऎसा कुछ कुछ आभास हो रहा है। आलोक दा के पर्याय के रुप में मै उनको देखता हूं मिलने मिलाने की आशा मुझमें अधिक तीव्र नही है। इससे उनके प्रति सम्मान या आदर में कुछ घटाना जोडना मुझे अनुचित लगता है। हां यदि कभी अवसर लग ही गया तो उनके चरण स्पर्श कर आशीर्वाद अवश्य लेना चाहूंगा, इस आशय से भी कि वे एक विशाल व्यक्तित्व के स्वामी ही नही स्वयं डाक्टर बच्चन के ज्येष्ठ पुत्र भी है।
मेरे शरीर का बढा हुआ तापमान आपके द्वारा मेरी प्रत्याशा से कहीं अधिक बढ कर व्यक्त प्रतिक्रिया भी हो सकती है, अगर कोई खुशी में रो सकता है (अत्यंत भाव विभोर होकर) तब क्या मेरा मामूली स ज्वर मेरी सुखानुभूति के साथ नही जोडा जा सकता, यह ज्वर तो उस सुखानुभूति का परिणाम है जिसका संबंध आपके अभिव्यक्त भावों से है । मुझे लगता है कि यह ताप इस बात का भी द्योतक है कि आज मेरी प्रसन्नता की कोई सीमा नही है। मेरे लिये यह एक अत्यंत सुखद अनुभूति है कि आपने मेरे विचारों एवं कविता को पढा ही नही बल्कि उन्हे सराहनीय भी समझा, यह आपका बडप्पन है कि आपने मेरे को सराहने योग्य समझा अपनी वास्तविकता से मै सर्वदा अपरिचित तो नही, भाव आपको पसंद आये इस बात का हर्ष सदा ही रहेगा । आगे भी मै कुछ ऎसा लिख सकूं जो आपको पसंद आये ऎसी विनती मेरी ईश्वर से बनी रहेगी।
मैने आत्मकथा में कहीं पढा था कि डाक्टर बच्चन अपनी बीमारी की स्थिति में भी काव्य रचना से पीछे नही हटते थे तथा इस प्रकार अपने रोग को भी साध लेते थे, उनका अपना विश्वास था कि ऎसे समय या उस अवस्था में उनके भावों को अधिक निखार मिलता था। उनकी हर बात निराली है इसीलिये कविता उनकी मतवाली है ।
अभय शर्मा 10 जनवरी 2009 23.50 रात्रि प्रहर
( प्रकाशित 11-12 जनवरी 2009 01.24 घंटे भारत)
पुनश्चः यह तय कर पाना कि आत्मकथा के चरों खंडों में सबसे अधिक प्रिय कौन सा खंड लगा कहना मेरे लिये दुष्कर होगा, नीड का निर्माण फिर मैने पहले पढा उसकी उपलब्धता के कारण, उसके बाद एक समय पर बसेरे से दूर, क्या भूलूं क्या याद करूं साथ साथ शुरु करे, पहले बसेरे से दूर पढा बाद में कुछ दिनों क्या भूलूं के साथ दशद्वार से सोपान तक चलता रहा, अमिताभ बच्चन का अधिक वर्णन अंतिम खंड में अपेक्षित था इसलिये क्या भूलूं फिर पिछड गया । आज जब क्या भूलूं क्या याद करूं का पठन पूर्ण हो गया है युवा कवि बच्चन और मधुशाला की ललाई के साथ साथ श्यामा जी के चित्रण में इसका दूसरा अर्धांश अत्यंत प्रियकर लगा। इसके अतिरिक्त विदेश मंत्रालय के कार्यकाल में यूरोप तथा अन्य विदेश यात्राओं का उल्लेखनीय वर्णन भी काफ़ी पसंद आया । कुछ एक जगह ऎसा भी लगा कि कुछ घटनायें अतिव्यक्तिगत होने के कारण सम्मिलित न की जातीं तो शायद अधिक उचित होता, कविवर बच्चन की आत्मकथा पढने से पहले मेरा विशेष परिचय मात्र मधुशाला अथवा नैट पर उपलब्ध कविताओं तक सीमित था उनके जीवन के कुछ पहलू वास्तव में अनुकरणीय है । अधिकांश भाग में गद्य में भी पद्य जैसी ही उनकी महारत दिखाई पडती है। यह आत्मकथा पढने के बाद उनके प्रति श्रद्धा बढ गई है, उनकॊ अधिक पढने के लिये भी मन अवश्य ही प्रेरित हुआ है ।
अभय शर्मा, 10 जनवरी 2009.
कल 11 जनवरी को स्वर्गीय आलोक दा का जन्मदिन है, कल 9 जनवरी को उनका नाम सिर्फ़ डॉक्टर हर गोबिंद खोराना के साथ जोडने में एक त्रुटि रह गई, वास्तव में डॉक्टर बच्चन का भी प्रथम परिचय मुझे आलोक दा ने ही दिया था, मन्ना डे के स्वर में मधुशाला का कैसेट तो मैने बहुत बाद को खरीदा पाकेट बुक साइज़ में मधुशाला से मेरा परिचय दिल्ली आने के कुछ ही महीनों में हो गया था। मुझे ऎसा याद पडता है कि आलोक दा मधुशाला अक्सर ही गुनगुनाते हुये पढते थे शायद कुछ एक छंद उन्हे जबानी याद थे, यह हो सकता है कि शायद इसके पहले उनका परिचय पाठ्यक्रम में पथ की पहचान अथवा धर्मयुग के किसी संस्करण में अवश्य हो चुका था। शायद उससे भी पहले पारिवारिक स्तर पर हुआ हो तो ठीक ठीक याद नही, सात हिन्दुस्तानी के बारे में सुन रखा था शायद इसी संदर्भ में कभी कुछ चर्चा हुई हो तो कह नही सकता ।
जिस परिचय की मै यहां चर्चा कर रहा हूं उसका अर्थ मात्र यह जानकारी रखना नही कि अमुक कवि हुये है बल्कि उनके प्रति एक प्रकार की आस्था एक प्रकार से आकर्षित होने का भाव जागने से संबधित है। यहां यह बताना भी उचित रहेगा कि मै यह भी जानता था कि आनंद के बाबू मोशाय उनके ही पुत्र थे, अगर मेरा अमिताभ के प्रति आकर्षित होने के कारण में कवि का योगदान रहा हो तो इसका ठीक ठीक या सही उत्तर मेरे पास नही है। फिर भी इसमें संदेह नही कि बाद में पिता पुत्र दोनो में ही मेरी रुचि अभिरुचि में क्रमशः विकास होता रहा। बहरहाल आलोक दा को मन्ना डे व मधुशाला दोनो प्रिय थे, जब हमारे यहां टेप रिकार्डर उपलब्ध हुआ तब मैने जिन कैसेटस को खरीदा था उनमें से एक मन्ना डे की मधुशाला का भी था । विशेष रूप से मैने आलोक दा को प्रसन्न करने के लिये ही यह खरीदा था। यह तो मुझे बाद को पता चला कि परिवार में सभी को मधुशाला प्रिय थी।
पोर्ट ब्लेयर में सन 1973 में शायद संत तुलसीदास की 300वीं जयंती थी ठीक याद नही, मैने अपनी 14 वर्ष की अल्पावस्था में पहली कविता लिखी थी जिसका शीर्षक तुलसी महिमा था, कविता तो मुझे अब याद नही है अब उसका अंत ही याद है – सोरों का था संत महान । यही एकमात्र कविता मेरी प्रकाशित भी हुई, जिसके लिये मुझे दिल्ली पहुंचने पर हिंदी अध्यापक श्री केशव देव पांडे ने कक्षा में खडा करके पूछा था – कविता भी लिखते हो अनायास ही मेरे मुंह से नही सर निकल गया था, उन्होने ही बताया कि हिंदी पत्रिका में मेरी कविता छपी है, इस बात का मुझे पता नही था अपने प्रति सभी सहपाठियों की आंखे घूमते देख मन को बहुत अच्छा लगा था । बाद में जब मेरे हिंदी में 150 में से मात्र 102, अर्थात 68 प्रतिशत पांडे जी को मुझसे अधिक अफ़सोस हुआ, उन्होने कह था कि मैने उनके सारे किये कराये पर पानी फेर दिया था, वे जानबूझकर मुझे हिंदी में कम अंक देते थे कि कहीं मै सिर पर ना चढ जाऊ, उन्हे मुझसे 75 प्रतिशत से अधिक की उम्मीद थी, उन्हे इस बात का क्या इल्म रहा होगा कि इम्तहानॊं के एक माह पूर्व मैने हिंदी ही नही अंग्रेजी का भी मुंह तक नही देखा था, अधिक समय गणित या बाकी समय फिसिक्स- कैमिस्ट्री के अतिरिक्त मैने कुछ भी नही पढा, उन्हे मुझसे अधिक की अपेक्षा थी इस बात की आज तक खुशी होती है ।
बात कहां से चली और कहां पहुंच गई, डॉक्टर बच्चन भी तुलसीदास के अनन्य प्रशंसक थे अपनी आत्मकथा में अखंड रामायण पाठ के बारे में तथा उससे भी अधिक अनेकानेक स्थानों पर उनसे ली गई पंक्तियां इस बात को पुख्ता बनाती हैं। संयोगवश यहां यह बता देना चाहता हूं कि हमारी मां प्रतिदिन रामचरित मानस का पाठ किये बिना अन्न ग्रहण नही करती थीं। अब याद नही किस वर्ष की बात है एक दिन अपने किसी जन्मदिन पर मैं अकेला ही अखंड रामायण (रामचरित मानस) के पाठ में जुट गया था घर के लोगों को बाद में पता चला जब मैं एक घंटे से अधिक पाठ कर चुका था। मां को पता चला तो शायद मन में उन्हे बहुत प्रसन्नता हुईं होगी । कोई अवसर अपने किसी अन्य कार्य से उन्हे प्रसन्न करने के मुझे कम ही मिलें । सुविधायें जुटाई गईं परिवार के सभी सदस्यों ने भी यथायोग्य सहयोग दिया, अखंड रामायण में रात के पहर का पाठ सर्वाधिक कष्टप्रद होता है, उसके लिये कुछ भाइयों ने आपस में तय कर ऎसा प्रबंध कर लिया था कि रात के पाठ की जिम्मेदारी किसकी होगी । यह मेरा सबसे अद्भुत जन्म दिन था जो मुझे आज भी याद है ।
अमृत की तबीयत कुछ ज्यादा खराब प्रतीत हो रही है उसे देखने के लिये मै यहां एक छोटा सा ब्रेक लेना उचित समझता हूं , सिद्धिविनायक का स्त्रोत उसको पढ़ कर सुना दिया है, प्रणम्य शिरसा देवं तथा कुछ अन्य स्त्रोत मै प्रति रात्रि अमृत को सोते समय इस आशय से सुनाता हूं कि भयावह स्वपनादि उसको नींद में परेशान न करें, कभी अपने लिये हनुमान चालीसा का पाठ किया करता था। यहां बम्बई में सिद्धिविनायक की महिमा अपरम्पार है अमृत के जन्म से पूर्व उनकी शरण में प्रत्येक मंगलवार को मै जाता ही था तथा उसका विशेष लाभ भी हुआ, विशेष सहायक तथा शीघ्र ही प्रसन्न होने वाले गणेश जी की कृपा अमृत पर सदा ही बनी रहे मेरी उनसे यही प्रार्थना है एक यही कामना है ।
आज की वार्ता समाप्त करने से पहले अगर मै भाईसाहब (अमिताभ बच्चन) के प्रति अपना विशेष आभार प्रकट नही करता हूं तो वह धृष्टता होगी – आज संक्षेप में ही सही उनके शब्दों ने मेरा दिल जीत लिया है, मेरे आज सुबह के लेख पर जो प्रतिक्रिया उन्होने व्यक्त की है मै उसका अधिकारी तो नही पर आभारी अवश्य हूं ।
Thank you, very touching and emotional .. ADHBHUT !!
यह मेरे लिये अत्यंत ही सौभाग्य की बात है, अभी कुछ दिन पहले ही उनके ब्लाग पर कुछ पढ कर मन को ऎसा लगा था कि जैसे मै कसूरवार हूं । कल हैमलॆट का जिक्र कर और आज डाक्टर बच्चन पर लिखी एक पुरानी कविता, जो 23 दिसंबर को लिखी थी, उनकी प्रतिक्रिया से मन गदगद हो गया है, उन्होने अवश्य ही मुझे अपना अनुज स्वीकार कर लिया है ऎसा कुछ कुछ आभास हो रहा है। आलोक दा के पर्याय के रुप में मै उनको देखता हूं मिलने मिलाने की आशा मुझमें अधिक तीव्र नही है। इससे उनके प्रति सम्मान या आदर में कुछ घटाना जोडना मुझे अनुचित लगता है। हां यदि कभी अवसर लग ही गया तो उनके चरण स्पर्श कर आशीर्वाद अवश्य लेना चाहूंगा, इस आशय से भी कि वे एक विशाल व्यक्तित्व के स्वामी ही नही स्वयं डाक्टर बच्चन के ज्येष्ठ पुत्र भी है।
मेरे शरीर का बढा हुआ तापमान आपके द्वारा मेरी प्रत्याशा से कहीं अधिक बढ कर व्यक्त प्रतिक्रिया भी हो सकती है, अगर कोई खुशी में रो सकता है (अत्यंत भाव विभोर होकर) तब क्या मेरा मामूली स ज्वर मेरी सुखानुभूति के साथ नही जोडा जा सकता, यह ज्वर तो उस सुखानुभूति का परिणाम है जिसका संबंध आपके अभिव्यक्त भावों से है । मुझे लगता है कि यह ताप इस बात का भी द्योतक है कि आज मेरी प्रसन्नता की कोई सीमा नही है। मेरे लिये यह एक अत्यंत सुखद अनुभूति है कि आपने मेरे विचारों एवं कविता को पढा ही नही बल्कि उन्हे सराहनीय भी समझा, यह आपका बडप्पन है कि आपने मेरे को सराहने योग्य समझा अपनी वास्तविकता से मै सर्वदा अपरिचित तो नही, भाव आपको पसंद आये इस बात का हर्ष सदा ही रहेगा । आगे भी मै कुछ ऎसा लिख सकूं जो आपको पसंद आये ऎसी विनती मेरी ईश्वर से बनी रहेगी।
मैने आत्मकथा में कहीं पढा था कि डाक्टर बच्चन अपनी बीमारी की स्थिति में भी काव्य रचना से पीछे नही हटते थे तथा इस प्रकार अपने रोग को भी साध लेते थे, उनका अपना विश्वास था कि ऎसे समय या उस अवस्था में उनके भावों को अधिक निखार मिलता था। उनकी हर बात निराली है इसीलिये कविता उनकी मतवाली है ।
अभय शर्मा 10 जनवरी 2009 23.50 रात्रि प्रहर
( प्रकाशित 11-12 जनवरी 2009 01.24 घंटे भारत)
पुनश्चः यह तय कर पाना कि आत्मकथा के चरों खंडों में सबसे अधिक प्रिय कौन सा खंड लगा कहना मेरे लिये दुष्कर होगा, नीड का निर्माण फिर मैने पहले पढा उसकी उपलब्धता के कारण, उसके बाद एक समय पर बसेरे से दूर, क्या भूलूं क्या याद करूं साथ साथ शुरु करे, पहले बसेरे से दूर पढा बाद में कुछ दिनों क्या भूलूं के साथ दशद्वार से सोपान तक चलता रहा, अमिताभ बच्चन का अधिक वर्णन अंतिम खंड में अपेक्षित था इसलिये क्या भूलूं फिर पिछड गया । आज जब क्या भूलूं क्या याद करूं का पठन पूर्ण हो गया है युवा कवि बच्चन और मधुशाला की ललाई के साथ साथ श्यामा जी के चित्रण में इसका दूसरा अर्धांश अत्यंत प्रियकर लगा। इसके अतिरिक्त विदेश मंत्रालय के कार्यकाल में यूरोप तथा अन्य विदेश यात्राओं का उल्लेखनीय वर्णन भी काफ़ी पसंद आया । कुछ एक जगह ऎसा भी लगा कि कुछ घटनायें अतिव्यक्तिगत होने के कारण सम्मिलित न की जातीं तो शायद अधिक उचित होता, कविवर बच्चन की आत्मकथा पढने से पहले मेरा विशेष परिचय मात्र मधुशाला अथवा नैट पर उपलब्ध कविताओं तक सीमित था उनके जीवन के कुछ पहलू वास्तव में अनुकरणीय है । अधिकांश भाग में गद्य में भी पद्य जैसी ही उनकी महारत दिखाई पडती है। यह आत्मकथा पढने के बाद उनके प्रति श्रद्धा बढ गई है, उनकॊ अधिक पढने के लिये भी मन अवश्य ही प्रेरित हुआ है ।
अभय शर्मा, 10 जनवरी 2009.
No comments:
Post a Comment