Thursday, December 3, 2009

Maa to akhir maa hoti hai..


माँ तो आखिर माँ होती है
मेरी या तेरी या फिर किसी और की
कैसे माँ से भिन्न भला माँ हो सकती है
सोलह आने सच है - माँ तो आखिर माँ होती है

जन्म-काल से पहले के उन नौ मासों में
बंधन माँ से जुडे हमारे कई बरसों के
काटे नही कटते, नही टूटते किसी तरह से
कहता है दिल - माँ तो आखिर माँ होती है

माँ, तुम राजाओं की माँ
तुम पीर-फ़कीरों की भी माँ
कैसे चलता जग बिन माँ के
कुछ झूठ नही कि - माँ तो आखिर माँ होती है

माँ, आज तुम्हारे जाने की बेला आई
मन विह्वल है, भावुक है मेरा विचलित है
कल किसे कहूंगा जाकर माँ सपने अपने
यह मान लिया कि - माँ तो आखिर माँ होती है

दुख-संकट में, बचपन में, जीवन के यौवन पर
वह एक सहारा सदा तुम्हारा क्या कम था
भीषण दुख की अग्नि में अब जलता है मन
छूट गया है साथ कि - माँ तो आखिर माँ होती है

अब कौन सुनेगा जग में वह मेरे सपने
तुम कहां चली माँ छॊड हमें हम थे अपने
कहीं दिया बुझ गया कोई तुम्हारे जाने से
अंधकार में डूबा मन कि - माँ तो आखिर माँ होती है ।

- अभय शर्मा

Tuesday, December 1, 2009

Day 590


आदरणीय भाईसाहब
सादर चरण स्पर्श
आपकी आज्ञा लेते हुये मै यह संस्मरण बिना किसी संपादन के यहां सिर्फ़ इसलिये प्रस्तुत कर रहा हूं कि कल जब मैने इसे लिखा था तब तक बहुत देर हो चुकी थी साथ ही आपकी नई पोस्ट के लिये मेरे पास नया कुछ अब तक तैयार नही है, हां उस बच्चन संध्या के दो अन्य प्राणियों के चरण स्पर्श करने की मेरी अभिलाषा है उनमें से एक पुष्पा भारती है तो दूसरी जया भादुड़ी है, जी हां उस दिन वे जया भादुड़ी जैसी ही दिख रही थीं वे भी मेरे आस-पास थी पर उनसे तो मै अपना प्रणाम भी नही कह पाया था, आदमी कितना कुछ कहना चाहता है पर कभी कभी कुछ भी नही कह पाता मै बस उन्हे देखता ही रह गया था - आपको तो करीब से देख भी नही पाया पता नही किस शक्ति ने मुझे ग्रीन रुम से उस समय वहां से हटा लिया जहां मैं आपके बाहर आने की प्रतीक्षा कर रहा था । उस पर विडम्बना यह कि बाद में बाहर भीड़ में खड़े होकर आपकी एक झलक पाने के लिये आधे घंटे से अधिक यूं ही गुमसुम सा खड़ा था- हां एक सिगरेट मैने इतनी भीड़ में भी पी ली थी - अपने को अभागा नही तो क्या कहूं आपके इतने निकट होते हुये भी आपसे मिलने से वंचित रह गया - आपका आशीर्वाद लेने का अवसर मैने स्वयं ही गंवाया है इसके लिये नियति को दोष देना न्यायोचित नही लगता -


बच्चन संध्या भाग – 3

जो बीत गई सो बात गई- कवि बच्चन कि अनन्यतम रचनाओं मे से एक है, कितने गहरे भाव के साथ लिखी इस कविता के लिये जब पुष्पा जी ने जया बच्चन को आमंत्रित किया तो पहले पहल तो मुझे लगा था कि क्या जया जी इतनी गंभीर कविता के साथ न्याय कर पायेंगी, अगर मैने वह प्रसंग़ जया जी तथा बाबूजी के बारे में ध्यान से सुना होता तो अवश्य ही मुझे याद रहता कि जया जी कितनी संवेदनशील है, मुझे इतना ही याद है कि शायद उस जिक्र से मंच पर भी उनकी आंखे भर आई थी –


यह कविता तो अभी कुछ ही दिनों पहले यहां लिखी थी – फिर भी जया जी की प्रस्तुति मेरी उम्मीद से कहीं बहुत ही अच्छी थी, हर कोई तो भाईसाहब की तरह कविता पाठ नही ही कर सकता फिर भी जया जी की काव्यांजलि काफ़ी सुंदर थी –

जो बीत गई सो बात गई ।

जीवन में एक सितारा था,
माना वो बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अंबर के आनन को देखो
...
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई ।

मुझे यह कहते हुए या बताते हुये विशेष हर्ष नही हो रहा है कि जया जी के बारे में इस प्रसंग को मैने शायद इसलिये ध्यान से नही सुना कि मेरा ध्यान भंग हो रहा था, मै देख रहा था कि भाईसाहव असल ज़िंदगी में भी कितने महान व्यक्तित्व के स्वामी हैं । वास्तव में कई क्षण तो मुझे इस बात का यकीन ही नही हो रहा था कि मै बच्चन संध्या में प्रवेश पा चुका हूं या अमिताभ बच्चन नामक महान कलाकार मेरे से 100-200 मीटर की दूरी पर ही विराजमान है । मै बीच बीच में कुछ कुछ अपने आप में खो सा जाता था । पुष्पा जी अक्सर मनुष्य के साथ अकस्मात क्षणों में कभी कभी ऎसा हो जाता है जब वह लगभग हक्का-बक्का रह जाता है, मुझे आशा है कि मेरी साफगोई से आप दोनो को परेशानी नही होनी चाहिये, जानबूझकर मैने ऎसा नह किया था । जया जी आपका कविता पाठ इतना सुंदर था कि उसने मेरे अमिताभ-मोह को भंग कर दिया था-


मृदु मिट्टी के है बने हुये
मधुघट फूटा ही करते है
लघु जीवन लेकर आये है
प्याले टूटा ही करते हैं ।

यहां एक छोटी सी विश्लेषणा अवश्य ही जोड़ना चाहूंगा –
डाक्टर बच्चन को मिट्टी से बेहद प्यार था तभी शायद अपने बारे में उन्होने कहा होगा –

मिट्टी का तन , मस्ती का मन
क्षण भर जीवन, मेरा परिचय !